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नाबालिग के लिए हैबियस काॅर्पस पिटीशन कब, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का तर्क

By Rajesh Kapil (JNN Chief)

Published on 20 May, 2019 03:51 PM.

जय हिन्द न्यूज़/नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण यानि हैबियस काॅर्पस की याचिका उस समय सुनवाई योग्य है,जहां यह साबित होता है कि माता-पिता या अन्य व्यक्ति द्वारा नाबालिग बच्चे को अवैध रूप और बिना किसी कानूनके अधिकार से हिरासत में रखा गया है। इस मामले में उठाए गए विवाद (तेजस्विनी गौड़ बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी) में कहा गया था कि हिन्दू माइनॉरिटी एवं गार्डियनशिप एक्ट 1956 के तहत पिता के पास जब अन्य प्रभावी विकल्प मौजूद हो तो बंदीप्रत्यक्षीकरण की रिट जारी नहीं की जा सकती है या दायर नहीं की जा सकती है। इस तर्क का जवाब देते हुए पीठ ने कहा कि रिट को स्वीकार करने व नाबालिग बच्चे की हिरासत का निर्देश देने के उद्देश्य से उस व्यक्ति द्वारा बच्चे को हिरासत में रखना अवैध हिरासत के बराबर माना गया है,जिसके पास बच्चे की कानूनी हिरासत का अधिकार नहीं था। कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार एक व्यक्ति से नाबालिग की हिरासत बहाल करने या वापिस लेने के लिए,जो कानूनी या प्राकृतिक रूप से उसका संरक्षक नहीं है,उपयुक्त मामलों में,रिट कोर्ट का अधिकार क्षेत्र बनता है। कोर्ट ने इसको समझाते हुए कहा कि- "बंदी प्रत्यक्षीकरण कार्यवाही हिरासत की वैधता को सही ठहराने या उसकी जांच करने के लिए नहीं है। बंदी प्रत्यक्षीकरण कार्यवाही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा बच्चे की हिरासत को अदालत के विवेक के जरिए संबोधित किया जाता है। बंदी प्रत्यक्षीकरण एक विशेष या रिआयत रिट है जो एक आसाधरण उपाय है और यह रिट उन परिस्थितियों में जारी की जाती है जहां पर किसी विशेष मामले में कानून द्वारा प्रदान किया गया साधारण उपाय या तो उपलब्ध नहीं है या अप्रभावी है,अन्यथा रिट जारी नहीं की जाएगी। बच्चों की हिरासत के मामले में,रिट देने में उच्च न्यायालय की शक्ति केवल उन मामलों में लागू होगी ,जहां एक ऐसे व्यक्ति द्वारा नाबालिग को अपनी हिरासत में रखा गया है, जिसके पास ऐसा करने का कानूनी अधिकार नहीं है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों को देखने के बाद हमारा मानना है कि बच्चों की हिरासत के उन मामलों में बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट सुनवाई योग्य है, जहां यह साबित कर दिया जाए कि बच्चे की कस्टडी माता-पिता या अन्य के पास अवैध है और बिना किसी अधिकार के है। '' हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षक अधिनियम या अभिभावक व 14 वार्ड अधिनियम (गार्डिअन्स एंड 14 वार्डस एक्ट) के तहत मौजूद अन्य विकल्प के बारे में कोर्ट ने कहा कि- "अभिभावक व वार्ड अधिनियम के तहत पूछताछ और एक रिट कोर्ट द्वारा शक्तियों का प्रयोग, जो प्रकृति में सारांश या संक्षिप्त है, के बीच महत्वपूर्ण अंतर होता है। सबसे महत्वपूर्ण है- बच्चे का हित। रिट कोर्ट में, हलफनामोंके आधार पर ही अधिकारों का निर्धारण किया जाता है। जहां अदालत को लगेगा कि मामले में एक विस्तृत जांच की आवश्यकता है,अदालत असाधारण क्षेत्राधिकार का उपयोग करने से मना कर सकती है और पक्षों कोसिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का निर्देश दे सकती है। यह केवल असाधारण मामलों में ही होता है कि किस पक्षकार के पास बच्चे की कस्टडी रहेगी,इसका निर्णय बंदी प्रत्यक्षीकरण के असाधारण क्षेत्राधिकार का प्रयोगकरके हो।'' हाईकोर्ट के दृष्टिकोण की पुष्टि करते हुए पीठ ने कहा कि इस मामले में पिता ने न तो बच्चे को छोड़ा था और न ही बच्चे को उसके प्यार ओर स्नेह के अधिकार से वंचित था।

 

कोर्ट ने कहा कि- "हालात ऐसे थे कि माता-पिता की बीमारी के कारण,अपीलकर्ता को कुछ समय के लिए बच्चे की देखभाल करनी पड़ी। केवल इसलिए कि,रिश्तेदार होने के नाते अपीलकर्ताओं ने कुछ समय के लिए बच्चे की देखभाल की,वेबच्चे की हिरासत को बरकरार नहीं रख सकते है।'' 

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