राजेश कपिल/जालंधर। आज़ादी के 7 दशक बाद भी हम कानूनी भाषा की अस्पष्टता से दो चार हो रहे हैं। वैसे यह काम सरकारों का है लेकिन इसका सुधार देश की शीर्ष कोर्ट को करना पड़ रहा है। किसी आरोपी की गिरफ्तारी को लेकर नियम स्पष्ट करने वाली सुप्रीमकोर्ट ने अब एफआईआर दर्ज करने के आदेश का अधिकार रखने वाले "मजिस्ट्रेट" शब्द के अधिकारी की परिभाषा को स्पष्ट किया है।
उन्नाव के एक मामले का निपटारा करते हुए जस्टिस आर.एफ. नरीमन और नवीन सिन्हा के बेंच ने एक ताजा फैंसले में परिभाषित किया है कि cr.p.c. की धारा 156(3) के विस्तार में जिस मजिस्ट्रेट शब्द को अंकित किया गया है, उसका भाव ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट है ना कि मजिस्ट्रेट शब्द का इस्तेमाल करने वाले प्रशासकीय अधिकारी जैसे सब डिविजनल मजिस्ट्रेट तथा जिला मजिस्ट्रेट इत्यादि।
शीर्ष कोर्ट ने यह भ्रम उत्तर प्रदेश के नमन प्रताप सिंह की क्रिमिनल रेविजिन का निपटारा करने हुए किया जिसके खिलाफ पुलिस ने IPC धारा 406, 420, 467, 468, 471, 504, 506, 34 के तहत एक मुकद्दमा कायम किया था। आरोपी नमन कानपुर में एक लॉ की पढ़ाई के संचालक है जहां मान्यता को लेकर विवाद होने की सूरत में एक छात्रा ने शिकायत दायर की थी।
दरअसल, यह मुद्दा उस समय बन गया जब छात्रा की ओर से cr.p.c. की धारा 156(3) के तहत दायर शिकायत का सब डिविजनल मजिस्ट्रेट ने संज्ञान ले लिया और पुलिस को मुकदमा दर्ज करने का आदेश दे डाला। अब भ्रम होना स्वाभाविक था क्योंकि cr.p.c. की धारा 156(3) की परिभाषा में "एनी मजिस्ट्रेट" लिखा है जिसको लेकर पुलिस ने भी आदेश का पालन कर डाला। वकील की शरण में पहुँचे आरोपी नमन ने सुप्रीमकोर्ट का रुख किया जहां उपरोक्त फैंसले के बाद फिलहाल उन्होंने राहत की सांस ली है।